ईटानगर
केंद्र सरकार द्वारा चकमा, हाजोंग शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने का मुद्दा सोशल मीडिया में वायरल हो चुका है| सोशल मीडिया में इस मुद्दे को लेकर चर्चा और बहस जारी है| मुद्दे पर हर कोई अपनी टिप्पणी और अपनी राय दे रहा है| अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न संगठन और नागरिक समाज यह कहकर चकमा और हाजोंग शरणार्थियों की नागरिकता का विरोध कर रहे है कि ऐसा करने से अरुणाचल प्रदेश की जनसंख्या पर असर पड़ेगा|
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजीजू ने बुधवार को कहा था, “केंद्र सरकार पूर्वोत्तर में रहने वाले सभी चकमा और हाजोंग शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करेगी, लेकिन ऐसा करते हुए इस बात का ध्यान रखा जाएगा कि मूल निवासियों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ न हो|” रिजीजू की इस टिप्पणी के बाद ही यह मुद्दा सोशल मीडिया में वायरल हो गया|
बुधवार को चकमा-हाजोंग शरणार्थियों के मुद्दे पर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की उपस्थिति में उच्च-स्तरीय बैठक का आयोजन हुआ जिसमें अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजीजू और सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल समेत अन्य अधिकारियों ने हिस्सा लिया|
बैठक के बाद पत्रकारों को संबोधित करते हुए रिजीजू ने कहा, “एक बीच का रास्ता अपनाया जाएगा ताकि वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा चकमा-हाजोंग शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने के आदेश का पालन भी हो और स्थानीय लोगों के हितों को भी सुरक्षित रखा जा सके| चकमा शरणार्थी वर्ष 1964 से ही अरुणाचल प्रदेश में बसे हुए हैं| लेकिन आज तक अनुसूचित जनजातियों और मूल निवासियों के अधिकारों का हनन नहीं हुआ है|”
हालांकि अरुणाचल प्रदेश की जनसँख्या पर असर पड़ने की बात कहते हुए प्रदेश के विभिन्न संगठन और नागरिक समाज चकमा और हाजोंग शरणार्थियों की नागरिकता का विरोध कर रहे हैं|
दरअसल चकमा और हाजोंग शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान के चित्तागोंग पहाड़ी क्षेत्र से हैं जो 1960 में कप्ताई बाँध परियोजना के पानी में अपना घर-बार लूटाने के बाद यहाँ आकर बस गए थे| चकमा शरणार्थी बौद्ध धर्म के हैं जबकि हाजोंग शरणार्थी हिंदू हैं| चकमा और हाजोंग ने उस समय असम के लुशाई पहाड़ी जिले (जो मौजूदा मिजोरम है) से भारत में प्रवेश किया था| केंद्र ने उनमें से अधिकांश को नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) में बसाया था जो कि मौजूदा अरुणाचल प्रदेश के नाम से जाना जाता है|
अधिकारियों के मुताबिक, 1964-69 में इन शरणार्थियों की संख्या 5000 से बढ़कर एक लाख हो गई| मौजूदा इन शर्णार्थियों के पास न तो नागरिकता है और न ही भूमि का अधिकार, लेकिन इन्हें राज्य सरकार की ओर से बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं|
वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इन शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने का केंद्र को आदेश दिया था| जिसके बाद अरुणाचल प्रदेश सरकार ने अदालत से आदेश पर पुनर्विचार की अपील की थी| लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस अपील को ठुकराए जाने के बाद मुद्दे का हल निकालने के लिए केंद्र और राज्य की सरकार आपस में विचार-विमर्श कर रहे हैं|