परशुराम कुंड- पढ़िए मातृहत्या से संबंध परशुराम का इतिहास
By Sanjay Tiwary
अरुणाचल प्रदेश यूँ तो जनजातियों का राज्य है, लेकिन यहाँ स्थित परशुराम कुंड की वजह से हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए भी यह राज्य खास महत्व रखता है। परशुराम कुंड की उत्पत्ति की कहानी श्रीमद भगवत, कालिकापुराण और महाभारत में परशुराम द्वारा की गई मातृहत्या से संबंध है।
एक दिन परशुराम की माँ रेणुका पानी भरने गई। जब वह लौट रही थी तो रास्ते में ही उन्होंने राजा चित्रनाथ को कुछ देवियों के साथ खेलते हुए देखा तो वह उनकी ओर आकर्षित हो गई। फलस्वरूप उन्हें आश्रम लौटने में देर हो गई। उनके पति जमादग्नि उनके विलम्ब होने से चिंतित थे क्योंकि दोपहर की पूजा के लिए देर हो रही थी। अपनी दिव्य शक्ति से जब जमादग्नि ने देखा तो उन्हें रेणुका के देर होने की वजह पता चली और वे क्रोधित हो उठे। रेणुका के घर लौटने पर उन्होंने अपने 6 बेटों को अपनी माँ की हत्या करने का आदेश दिया। लेकिन परशुराम के सिवाय और किसी भी बेटे ने उनकी बात नहीं मानी। परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया और अपनी माँ रेणुका का सिर धड़ से अलग कर दिया। हालांकि जिस कुल्हाड़ी से उसने अपनी माँ पर वार किया वह उसके हाथ से चिपक गई। परशुराम से संतुष्ट होकर जमादग्नि ने उसे वर मांगने को कहा। परशुराम ने 6 वर मांगे जिसमें एक वर यह यह था कि उसकी माँ जल्द से जल्द ठीक हो जाए। हालांकि इससे उसका गुनाह कम नहीं हुआ। उससे कहा गया कि उसके गुनाह तभी मिट सकते है जब वह ब्रह्म कुंड में स्नान करेगा और तभी उसके हाथ से चिपकी हुई कुल्हाड़ी छूटेगी।
परशुराम आखिरकार ब्रह्म कुंड पहुंचा जो मौजूदा लोहित जिले में स्थित है। उसने ब्रह्म कुंड तक जाने के लिए कुंड के किनारे खुदाई कर रास्ता बनाया। वह जगह जहाँ परशुराम के हाथ से छूटकर कुल्हाड़ी गिरी थी वह परशुराम कुंड के नाम से प्रसिद्ध हुई। कालिकापुराण में कहा गया है कि इस कुंड में स्नान भर करने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस कुंड का जल गंगा नदी के जल के समान ही पवित्र माना जाता है। 18 वीं सदी में एक साधु ने परशुराम कुंड को पुनःस्थापित किया। चौखाम से आए इस साधु को ठग समझकर गाँव से बाहर निकाल दिया गया था। इसके बाद ही गाँव के लोग एक अनजान रोग से ग्रस्त हो गए। इधर साधु ग्रामीणों के रोष से बचने के लिए कुंड के पास एक गुफा में छिप गया। गाँव वाले उसकी खोज में निकल पड़े और फिर फल-फूल देकर उससे माफी मांगने लगे।
इस साधु द्वारा जिस स्थान पर परशुराम कुंड को स्थापित किया वह 1950 तक अस्तित्व में था जब पुरानी जगह, पूर्वोत्तर में आए भयानक भूकंप में पूरी तरह बदल चुकी थी और कुंड भूकंप के मलबे से ढक चुका था। कुंड के वास्तविक स्थान से बहुत तेज़ धारा बहती है, लेकिन नदी की सतह पर मौजूद बड़े-बड़े पत्थर रहस्यमयी ढंग से यहाँ गोलाकार पड़े है जो पुरानी जगह पर एक और कुंड बनाते नज़र आते हैं।
ठहरने की सुविधा न होने की वजह से यहाँ आने वाले तीर्थयात्रियों को काफी कठिनाईयां झेलनी पड़ती है। उन्हें मंदिर के चारों तरफ ही रात गुजारनी पड़ती है। उत्तर प्रदेश जैसे दूर दराज की पहाड़ियों से आए साधु पवित्र स्नान के बाद भक्ति गीत गाते हुए दो रात कुंड में ही बिताते है। तीर्थयात्रियों के मनोरंजन के लिए लोहित नदी के किनारे मेले का भी आयोजन किया जाता है। पौष महीने में मकरसंक्रांति के दिन कुंड में पवित्र स्नान के लिए तीर्थयात्रियों का सैलाब उमड़ पड़ता है।
अब तक मौजूद तथ्यों से साफ है कि सदियों से इस कुंड में आने के लिए तीर्थयात्रियों का मार्ग खुला था लेकिन 1826 में ब्रिटिश प्रशासन के कब्ज़े में आने के बाद इस इलाके में इनर लाइन नियम लागू किया गया। अभी भी अगर आपको परशुराम कुंड जाना हो तो इनर लाइन चेकपोस्ट पार करने के लिए परमिट लेनी पड़ती है।
मकरसंक्रांति के मौके पर लोहित जिले के उपायुक्त तीर्थयात्रियों के लिए परमिट जारी करते है। इसी समय दिराक और सुनपुरा चेकपोस्ट में भी परमिट जारी करने की व्यवस्था की जाती है।
परशुराम कुंड तिनसुकिया जिले से 165 किलोमीटर दूर है। तेजू से होते हुए यहाँ पहुँचने के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन 97 किलोमीटर दूर है। असम और अरुणाचल प्रदेश का राज्य परिवहन विभाग तिनसुकिया से नामसाई, वाक्रो और तेजू तक बस की व्यवस्था करता है।