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“रोंगाली बिहू”, है असम की परम्परा और संस्कृति की पहचान

 गुवाहाटी

By Manzar Alam, Founder Editor, NESamachar, Former Bureau Chief(Northeast), Zee News  

रोंगाली  बिहू यदि असम की परम्परा और संस्कृति की पहचान है तो बिहू नृत्य हर असमिया की आत्मा जिस के बिना कोई भी असमिया जीने का सोच भी नहीं सकता.

 जब सूखी नदियों और झरनों में पानी बहना शुरू हो जाता है, पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं, परिंदे चहचहाने लगते हैं तो समझो नव वर्ष आ गया. नव वर्ष के दिन असम में लोग “रोंगाली  बिहू” मनाते हैं जिसे बोहाग बिहू के नाम से भी जाना जाता है.  रोंगली बिहू के दिन से ही असमिया नव वर्ष शुरू होता है, लेकिन उस के पहले ही पूरा असम बिहू के नशे में झूमने लगता है. जगह जगह बिहू सनमीलनी का आयोजन किया जाता है, सांस्कृतिक जुलूस निकाले जाते हैं, नवयुवक-युवितियाँ बिहू टोली बना कर बदलते प्रकृति की खुशियों में शामिल होने के लिए बिहू नृत्य करते नज़र आते हैं.

रोंगाली बिहू का माहोल हो और उस पे सोने पे सुहागा यह की बिहू की ढोल और भैंसों की सींग से बने पेपा की आवाज़ कानो तक पहुँच रही हो तो कोई भी असमिया अपने को रोक नहीं पाता है. उस के पैर अपने आप ही थिरकने लगते हैं और वोह बिहू के धुन में झूमने लगता है. बुज़ुर्ग, बच्चे, और जवान कोई भी खुद को बिहू टोली में शामिल होने से रोक नहीं पाता.

गाँव में बिहू खेत, या नदी के किनारे मनाया जाता है लेकिन शहरों में बिहू संमिलन होता है जहां आस पास के लोग इकठ्ठा हो कर बिहू मनाते हैं. रोंगाली  बिहू यदि असम की परम्परा और संस्कृति की पहचान है तो बिहू नृत्य हर असमिया की आत्मा जिस के बिना कोई भी असमिया जीने का सोच भी नहीं सकता.

यूं तो अहोम राजाओं के समय में ही बिहू को एक रूतबा हासिल हो गया था, लेकिन अंग्रेजों ने इसे ग्रामीण उत्सव समझ कर महत्व नहीं दिया. परन्तु वर्ष 1952 में जब पहली बार बिहू ने गाँव से शहर का रुख किया तो उसे जगह मिला बड़े बड़े मंच पर. और इसी मंच ने बिहू को देश विदेश में एक अलग पहचान दिया. अब बिहू की पहचान केवल असम में ही नहीं बल्कि पूरे भारत वर्ष और विदेशों में भी है. हाँ इतना ज़रूर है की समय के साथ बिहू में भी बदलाव आने लगा है.

बिहू के दिन सब से पहले एक सांस्कृतिक जुलूस निकालने की परम्परा है. इस जुलूस में बच्चे, बूढे, पुरुष और महिलाएं सभी पारंपरिक पोशाक पहने नृत्य करते और ढोल ताशे बजाते हुए अपने इलाके का चक्कर लगाते हैं. मकसद होता है आस पास के सभी परिवार को बिहू संमिलनी में आमंत्रित करना. युवक धोती कुर्ता पहने और गले में असमिया गमछा डाले होते हैं तो महिलायें अपना पारंपरिक

पोशाक यानी मेखला चादर और गहने पहने होती हैं. जलूस में शामिल पारंपरिक पोशाक पहने छोटे छोटे बच्चे तो देखने योग्य होते हैं जैसे चाबी वाले खिलौने हों. जैसे जैसे जुलूस आगे बढ़ता जाता और लोग जुलूस में शामिल होते जाते हैं.

जुलूस के बाद झंडा तोलन का कार्यक्रम होता है और हर असमिया शपथ लेता है की वोह अपनी संस्कृति और परम्परा को जीवित रखने के लिए जीवन भर प्रयास करता रहेगा.

रंगाली बिहू के एक दिन पहले “गोरू बिहू” मनाने का रिवाज है. इस दिन किसान अपने जानवरों को नहला धुला कर उन का पूजा करते हैं और उन के अच्छे स्वास्थ की कामना करते हैं. जानवरों को नहलाने से पहले उन के माथे पर हल्दी और डाल का लैप लगाया जाता है और गले में नई रस्सी बाँधी जाती है. ऐसी मान्यता है की ऐसा करने से जानवर कभी बीमार नहीं पड़ते .

इस उत्सव में शामिल हो कर असमिया भावनाओं को महसूस किया जा सकता है. बिहू का नाम सुनते ही हर असमिया का ह्रदय प्रफुल्लित हो उठता है. असम का यह उत्साह पूर्ण तेवहार आंतरिक स्नेह का प्रेरक है. इस तेवहार की मान्यता पारस्परिक भेद-भाव को भुला कर हार्दिक स्नेह एवं संगठन का सूत्रपात करना है. यही कारण है की अब बिहू केवल असम का तेवहार ही नहीं बल्कि जाती और धर्म से कहीं ऊपर उठ कर राष्ट्रीय एकता और अखंडता का प्रतीक बन चुका है. 

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