गुवाहाटी- ( By Manzar Alam )- असम के गुवाहाटी में ब्रहमपुत्र के किनारे नीलाचल पर्वत की चोटी पर स्थित है “कामाख्या मंदिर” आसाढ़ महीने का पहला सप्ताह शुरू होते ही देश के कोने कोने से बड़ी संख्या में साधू और श्र्धालू कामाख्या मंदिर पहुँचने लगते हैं क्योंकि इसी पहले सप्ताह में ही यहाँ लगता है “अंबुबाची मेला”. पूरा नीलाचल परबत भजन, कीर्तन और माँ के जयकारों से गूंजने लगता है. पूरे मंदिर परिसर में तिल धरने की भी जगह नहीं होती. साधू-संत और श्रधालुओं का मानो सैलाब उमड़ पड़ता है. हर वर्ष 22 जून से 24 जून तक कामाख्या मंदिर में अम्बुवासी मेला मनाया जाता है.
कामाख्या का इतिहास और महत्व-
51 पीठों में सब से अधिक महत्व कामाख्या धाम को प्राप्त है. हम सब यह तो जानते हैं की की भगवती सती का जन्म दक्षप्रजापति के कन्या की रूप में हुआ था और भगवान शंकर के साथ उन का विवाह हुआ था. एक बार दक्षप्रजापति ने एक विराट महायज्ञ का आयोजन किये जिस में शामिल होने के लिए सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया परन्तु भगवान शंकर को अपमानित करने के उदेश्य से उन्हें निमंत्रण नहीं भेजा गया. यह जानते हुए भी की भगवान शंकर को निमंत्रण नहीं भेजा गया है सती ने पति से कहा की वोह पिता के घर ज़रूर जाएगी. पिता के घर पहुँचने पर स्वागत-सत्कार तो दूर , किसी ने भी सती से बात तक नहीं किया. यहाँ तक की बहनों ने मुंह फेर लिए, केवल माँ ने ही सती को गले लगाई. अपने प्रति इस त्रिस्कार और अपमान को सती सह नहीं पाई और यज्ञकुंड में कूद कर अपने शरीर को भस्म कर डाली. भगवान शंकर की नज़रों ने जब यह दृश्य देखा तो वोह गुस्से से बेकाबू हो गए. वोह रूद्र रूप धारण कर प्रज्पति के यज्ञ को नष्ट सती के शरीर को कंधे में उठाये प्रलयकारी तांडव करने लगे. भगवान शिव का तांडव देख कर वहाँ उपस्थित सभी देवतागण चिंतित हो उठे और विष्णु के चरणों में पहुंचे. भगवान शिव के इस तांडव को रोकने के लिए विष्णु ने अपने चक्र से सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए जो विभिन् स्थानों पर जा गिरे और हर स्थान शक्ति पीठ कहलाया जो बाद में साधकों के लिए मुक्ति छेत्र बन गए.
इसे भी पढ़ें : कामाख्या धाम – एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान
अम्बुवासी मेला हुआ शुरू, दुर्गा सतपती पाठ की आवाज़ से गूँज उठा कामाख्या मंदिर
कामरूप के नीलाचल पर्वत पर सती का योनी अंग आ गिरा, अंत. यह पर्वत कामरूप कामाख्या योनिपीठ के रूप में स्थापित हो गया. क्योंकि यह योनी पीठ है इसी लिए ऐसी मान्यता है की वर्ष में एक बार अम्बुवासी मेले के समय माँ का रजस्वला होता है इसी लिए मंदिर के द्वार तीन दिन के लिए बंद हो जाते हैं और कोई पूजा अर्चना नहीं होता. साधक बताते हैं की एक समय था जब रजस्वला के समय आते ही द्वार खुद-बी-खुद बंद हो जाते थे लेकिन आज उसे बंद करना पड़ता है.
यूं तो कोई नहीं जानता की अम्बुबासी मेला कब और किस ने शुरू किया, लेकिन जब से मंदिर की स्थापना हुई तब से ही यहाँ अम्बुबसी मेला लगता चला आ रहा है. कियोंकि यह शक्ति पीठ है इस लिए पहले केवल साधक और तांत्रिक ही साधना एवं तंत्र सिध्धि प्राप्त करने के लिए यहाँ आया करते थे लेकिन आज कल तांत्रिक, साधक के अलावः लाखों की संख्या में भक्तगण और श्रधालु यहाँ पहुंचते हैं जिस से साधकों और तांत्रिकों को एकांत में साधना करने की स्थान कम पड़ने लगी है.
Watch Video