अपने मातृभूमि में हम विदेशी – ‘पूर्वोत्तर की पहचान’ का पुनर्निर्माण एवं पूर्वाग्रह और पूर्वाग्रहों से लड़ना ज़रूरी.
By- Ninong Ering and Abhishek Ranjan
सांस्कृतिक रूप से विविध और सामाजिक रूप से स्वीकार्यता ऐसे आदर्श है जिनपर राष्ट्रों का निर्माण किया गया है। लेकिन दुर्भाग्यवश, इस मामले में भारत को अभी भी लंबा सफर तय करना है। यह बात बार बार हमारे जहन में तब आ जाती है, जब निडो तानिया जैसे छात्र को उनकी हुलिए के लिए उनका मजाक उड़ाया जाता है और उसे मार दिया जाता है, या जब ऐसी रिपोर्ट्स आती है कि पूर्वोत्तर भारतीयों के खिलाफ अपराध के 200 से अधिक मामले अकेले दिल्ली में पंजीकृत होते हैं। यहां तक कि पूर्व मिस इंडिया चुम दरांग के खिलाफ भेदभाव के हालिया मामलों और जेएनयू में भी छात्रों के खिलाफ कुछ घटनाये सामने आई है जो हमें आहात करती हैं और अलग महसूस कराती है। स्थिति गंभीर है और हमें उन लोगों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने की जरूरत है जो हमारे देश को विभाजित करने और हमारे लोगों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहें हैं।
भारतीय राज्य के अपने नागरिकों के प्रति स्पष्ट कर्तव्य है: प्रत्येक नागरिक के सम्मानजनक और निष्पक्ष व्यव्हार सुनिश्चित करने के लिए। हालांकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम (एससी/एसटी) एक्ट, 1989 और अन्य मौलिक अधिकारों जैसे कुछ प्रावधान हैं जो समरसता बनाये रखने की कोशिश करते है, फिर भी ऐसा लगता है कि राज्य इस देश के नागरिको की रक्षा और सम्मान के लिए बहुत कुछ कर सकता है। सरकार द्वारा नियुक्त एमपी बेजबरुवा कमेटी ने भेदभाव के खिलाफ एक नया कानून बनाने की सिफारिश की है जो नस्लीय भेदभाव को संज्ञेय और गैर जमानती अपराध बनाता है। कमेटी की यह भी सिफारिश है कि प्राथमिकी दर्ज होने के बाद एक समय सीमा के अन्दर जांच पड़ताल पूरी हो एवं ट्रायल को फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में पूरा किया जाये जिससे लोगो का विश्वास कानून प्रवर्तन मशीनरी में पुनः स्थापित हो, जो कि आज के समय में कम हो गया है।
कमेटी ने यह भी टिप्पणी की, “कि यह चिंता करने का समय है जब कानून–शासित समाजों के संस्थान खुद ही ऐसे स्थान बन जाते हैं जहां नस्लवाद होता है।“ बड़ी पूर्वोत्तर आबादी वाले इलाकों में स्थित पुलिस कर्मियों के लिए इन–सर्विस प्रशिक्षण के माध्यम से संवेदनशीलता अभियान अनिवार्य किया जाना चाहिए। ऐसी ट्रेनिंग आदर्श रूप से पूर्वोत्तर प्रवासियों के साथ काम करने वाले लोगों द्वारा आयोजित की जानी चाहिए या जो उनके डर और अवरोध को समझते हैं।
समिति ने समुदायों के बीच सामाजिक संबंधों में सुधार की भी सिफारिश की है। जब पूर्वोत्तर राज्यों के लोग बेहतर रोजगार या शैक्षिक अवसरों की तलाश में बड़े शहरों की ओर माइग्रेट करते हैं, जहां वे अक्सर खुद को अलग–थलग पाते हैं और लोग द्वेषपूर्ण एवं जजमेंटल होते हैं। छात्रो के साथ द्वेषतापूर्ण व्यव्हार किया जाता है जबकि वे अपना काम पेशेवर तरीके से करते है।
यह अलगाव घातक हो सकता है और राज्य को इसके लिए चिंता करनी चाहिए। समावेशन सुनिश्चित करने के लिए एक अजमाया एवं परखा हुआ फार्मूला यह है कि ऐसे मंचों का निर्माण किया जाये जहां समुदाय एक दूसरे के साथ मिले एवं कार्य करे। शैक्षणिक संस्थान, राज्य भवन, निवासी कल्याण संघ, धार्मिक संस्थान और मानवाधिकारो के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाए इस तरह के मंचो के निर्माण में अहम् भूमिका निभा सकती हैं। फ़ूड फेस्टिवल से खेल आयोजनों तक, ऐसे सभी प्रयास लक्षित भेदभाव और हिंसा से लड़ने में मदद कर सकते हैं।
सरकार को स्वीकृति, विविधता और सहिष्णुता के विचारों को विकसित करने के लिए कड़ी मेहनत करने की भी आवश्यकता है, और युवाओं के साथ जुड़कर इसके लिए काम करना एक बेहद प्रभावी तरीका है। सोशल मीडिया अभियान लोगो तक पहुंचने का एक प्रभावी तरीका है। देश के एक प्रमुख समाचार पत्र द्वारा चला गया “लेट्स टॉक अबाउट रेसिज्म” जैसे अभियान भारत में गहरे जड़ वाले पूर्वाग्रहों और भेदभाव के बारे में बात करने के लिए सभी तरह के लोगो को उनकेविचार व्यक्त करने का मौका देते हैं। इस अभियान की पहुंच काफी ज्यादा रही एवं प्रतिक्रिया सकारात्मक रूप से जबरदस्त थी। सरकार द्वारा भी इसी लाइन पर एक अभियान चलाया जा सकता है।
आज उन लोगों से जुड़ने की तत्काल आवश्यकता है जो डर में रहते हैं और उनमें यह विश्वास जगाने की जरुरत है कि वे सभी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ें। हम आपको इस प्रयास में हमसे जुड़ने का आग्रह करते हैं।
निनॉन्ग एरिंग वर्तमान में अरुणाचल पूर्व लोकसभा सीट से संसद सदस्य हैं जबकि अभिषेक रंजन एक नीति विश्लेषक के रूप में काम कर रहे हैं। लेखकों से संपर्क करने के लिए आप मेल कर सकते है ninong2ering@gmail.com एवं ranjanabhish@gmail.com