जोनबिल मेला में पुनः जीवंत हुई विनिमय प्रथा
मोरीगांव
हर साल की तरह इस बार भी मोरीगांव जिले में तिवाओं के पारंपरिक जोनबिल मेला का आयोजन किया गया है जहाँ विनिमय प्रथा को एक बार फिर जीवंत होते देखा गया| गुवाहाटी से 90 किलोमीटर दूर दयांग-बेलगुड़ी में माघ बिहू के मौके पर हर साल जोनबिल मेला का आयोजन होता है जिसमें सदियों से चली आ रही विनिमय प्रथा की परंपरा को जीवंत रखते हुए पहाड़ी और मैदानी इलाके के लोग अपने उत्पादित सामग्रियों की अदला-बदली करते है| इस मेले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहाँ रुपयों-पैसों की कोई अहमियत नहीं है|
असमिया भाषा में जोन का अर्थ होता है चाँद जबकि बिल किसी जलाशय को कहते है| यह विनिमय मेला तड़के ही शुरू हो जाता है जब चाँद दूर कही गाँव के जलाशयों में डूबने की तैयारी में होता है| तिवा जनजाति समुदाय के राजा जिन्हें गोभा राजा कहते है, इस मेले का उद्घाटन करते है|
बीते गुरुवार को जोनबिल मेला का उद्घाटन किया गया| हालांकि विमुद्रीकरण का कोई प्रभाव इस मेले पर नहीं दिखा| गाँववाले पुरे जोश के साथ इस विनिमय प्रथा में हिस्सा ले रहे है| जनजाति समुदाय के पारंपरिक खाद्य से लेकर हल्दी या अन्य जड़ी-बुटियों का भी मेले में विनिमय प्रथा के जरिए आदान-प्रदान हो रहा है| ब्रह्मपुत्र किनारे बसने वाले स्थानीय लोग पहाड़ों से आए समुदायों के साथ अपने उत्पादित सामग्रियों की अदला-बदली करते है जिसे विनिमय प्रथा कहा जाता है|
शुक्रवार को मेले के दूसरे दिन भी विभिन्न इलाकों से आए लोगों ने तिवा समुदाय की इस परंपरा का भरपूर आनंद उठाया| राज्य के विभिन्न इलाकों से आए मैदानी इलाके के लोगों ने पहाड़ से आए मामा-मामियों के साथ सामानों की अदला-बदली के जरिए न केवल तिवाओं के इस ऐतिहासिक मेले की परंपरा को फिर से जीवंत कर दिया बल्कि आपसी भाईचारे की एक नई मिसाल भी पेश की|