असम राज्य के गुवाहाटी में नीलाचल पर्वत पर कामरूप कामाख्या देवी का धाम एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है जो युगों युगों से प्रसिद्ध है . जिस के दर्शन मात्र से ही न जाने कितने लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण हुई हैं.
गुवाहाटी
By Manzar Alam
कहते हैं की जब श्रृष्टि के रचिकेता विष्णु, ब्रह्मा, और महेश श्रृष्टि कार्य आरम्भ करने वाले थे तो उसी समय योगेश्वर शिव महा योग्य में लीन थे, जिस से प्रलय जैसे बाधाएं आने की संभावनाएं थीं. श्रृष्टि कार्य को पूरा करने के लिए देवताओं ने अनेक रूप धारण कर के श्रृष्टि रची और मनुष्य की जीवन को सार्थक बनाने के लिए तीर्थ स्थानों का निर्माण किया. भारत वर्ष में पवित्र तीर्थ स्थानों का समुदाय हमारे संस्कृति एकता, साहित्य एवं भारतवासी के मन में भक्ति भाव को दर्शाता है. आज के इस संकट काल में तीर्थ स्थानों का महत्व और बढ़ गया है जहां क़दम रखते ही तन मन में अद्भूत शान्ति महसूस होती है मानो एक नया जीवन का संचार हो रहा हो. ऐसा ही एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है गुवाहाटी का कामाख्या धाम.
अम्बुवासी मेला- असम राज्य के गुवाहाटी में नीलाचल पर्वत पर कामरूप कामाख्या देवी का धाम युगों युगों से प्रसिद्ध है जिस के दर्शन मात्र से ही न जाने कितने लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण हुई हैं. यूं तो कामाख्या धाम में साल भर भक्तों का आना जाना लगा रहता है लेकिन असाढ़ के महीने में जब यहाँ अम्बुवासी मेला लगता है तो जनसैलाब उमड़ पड़ता है. अम्बुबासी मेला के दौरान चार दिनों तक मंदिर के कपाट बंद रहते हैं और पूजा पाट नहीं होता. इस अवसर पर साधू संतों और भक्तों की भीड़ बस देखते ही बनती है. मान्यता है की अम्बुवासी मेले के अवसर पर माँ कामाख्या के चरणों में आया कोई भी भक्त खाली झोली ले कर नहीं लौटता.
मेले से पहले शुरू हो जाता है पदयात्रा- अम्बुवासी मेला शुरू होने से सप्ताह भर पहले से ही भक्तगण अलग अलग टोली बना कर पदयात्रा कर माँ की दरबार पहुँचने लगते हैं. पदयात्रा में माँ की पालकी भी होती है. माँ की आपार भक्ति हर किसी के अंदर इतना जोश भर देता है जिसके लिए दो क़दम भी चलना मोहाल होता है वोह भी नंगे पांव माँ की जयकारा लगाते हुए नील पर्वत की यात्रा तै कर माँ की दरबार पहुँच जाता है. पदयात्रा करने के बाद उसे जो खुशी मिलती है वोह खुशी और किसी कार्य से नहीं मिलती.
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मेले से पहले कलश यात्रा- कहते हैं की किसी भी शुभ कार्य के लिए शुभारंभ होना ज़रूरी है. इसी लिए अम्बुवासी मेला शुरू होने से सप्ताह भर पहले से ही विभिन संगठनो के तत्वाधान में कलश यात्रा निकाला जाता है. मंदिर परिसर के सौभाग्य कुंड से कलश में पानी भरा जाता है और फिर मंदिर परिसर में ही पंडित जी 108 कलशों की पूजा करते हैं. इस पूजा में समित्ती की एक महिला और एक पुरुष सदस्य भाग लेते हैं. उस के बाद 108 महिलाएं कलशों को सिर पर उठाये मंदिर की परिकर्मा करती हैं और फिर वहाँ से जुलूस की शक्ल में भंडारे के लिए बनाए गए पंडाल तक पहुँचती हैं जहां प्रधान कलश को स्थापित कर दिया जता है. फिर बाक़ी कलशों के पानी को ब्रहमपुत्र में विसर्जित कर दिया जता है. जलूस में बाजे गाजे का भी प्रबंध होता है. इस कलश यात्रा में यूं तो हज़ारों की संख्या में भक्तगण और समिती के सदस्य भाग लेते हैं लेकिन सब से भाग्यशाली वोह 108 महिलाएं होती हैं जो अपने सिर पर कलश उठाये माता का जयकारा करती कड़ी धुप में भी नंगे पांव चलती रहती हैं. भक्तगण मानते हैं कि सिर पर जितना भी कष्ट होता है कलश उठाने से उस का निवारण हो जाता है क्योंकि ऐसा करने से माँ भगवती का आशीर्वाद मिलता है. भक्तगण साल भर इस मेले का इन्त्तेजार करते रहते हैं कि कब यह दिन आएगा और कब वह अपने सर पर कलश उठाएंगे और माँ की दरबार में हाजरी लागाएंगे.
कलश का महत्व- हिंदू धर्म में कलश की बड़ी मान्यता है. एक अकेला भक्त भी जब चण्डी पाठ करता है तो सब से पहले एक कलश की स्थापना ज़रूर करता है. अम्बुवासी मेले के दौरान भी मंदिर परिसर कई स्थानों पर कलश की स्थापना की जाती है. जब अम्बुवासी मेला शरू होता है और कामाख्या के गर्भ गृह का कपाट बंद हो जाता है तो भक्तगण वहाँ आ कर पूजा पाट करते हैं. कहते हैं की कलश में भरे पानी में भगवान निवास करते हैं. कलश में आम के पत्ते और नारयल का रखना बड़ा ही शुभ माना जाता है कियों यह चीज़ें देवताओं की प्रिय होती हैं. और इसी लिए वोह महिलायें खुद को बड़ी भाग्यशाली मानती हैं जिनेहं अपनी सिर पर कलश उठाने का औसर प्राप्त होता है.
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