“फाइंडिंग ब्यूटी इन गार्बेज” एक लघु फ़िल्म जो कचरों की ढेरों से अटा पड़ा डिब्रूगढ़ शहर की शर्मनाक कहानी ब्यान करता है.
तिनसुकिया
By Sanjay Khaitan
“फाइंडिंग ब्यूटी इन गार्बेज” यानी कचरे में खूबसूरती की खोज नामक शीर्षक के बनाई गई लघु फ़िल्म को कंबोडिया में हुए एशिया साउथ ईस्ट इंटरनेशनल शार्ट फ़िल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ लघु वृत्त चित्र के पुरस्कार से नवाजा गया है। साथ ही अमेरिका सहित कई अन्य देशों में भी इस फ़िल्म को विशेष प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया है।
इस फ़िल्म को भारतीय राजस्व अधिकारी सत्यकाम दत्त ने निर्मित,परिकल्पित एवम निर्देशित किया है।इस फ़िल्म को कल आम लोगो के लिए यु ट्यूब सहित विभिन्न संचार माध्यमो के जरिये प्रदर्शित किया गया है। इस फ़िल्म में डिब्रूगढ़ शहर में फैले कचरे के ढ़ेर पर व्यंग्यात्मक तरीके से व्यवस्था के उपर तंज कसा गया है ।
उच्च तकनीक के किये गए कैमरा वर्क और सुंदर एडिटिंग के चलते 7 मिनट की यह लघु फ़िल्म कई प्रश्नों को जन्म दे देती है, साथ ही दर्शको को भी यह सोचने में मज़बूर कर देती है कि कैसे कचरा उनके जीवन मे भी कहर ढा रहा है।
फ़िल्म में दिखाया गया है कि कचरे और इस से फैली गंदगी से शहर वासी कैसे इस कदर आदी हो चुके है कि वो अब इसके साथ लड़ना नही चाहते बल्कि उसी के साथ जीना चाहते है। अब उनको ये कचरे के ढ़ेर भाने लगे है ,इन्ही कचरो से अब वो शहर की सुंदरता को भी ढूंढने लगे है , उनको अब ये लगने लगा है इन कचरो से फैली बेअदबी गंदगी, सड़क के ऊपर जहाँ तहाँ फैला दिए कचरो के सहारे ही वो लोग शहर के खो चुके गौरव तथा सम्मान को पा सकतें है।
फ़िल्म के पहले भाग में पूरे डिब्रूगढ़ शहर का एक विहंगम दृश्य दिखाया गया है उसके बाद के दृश्यों में शहर के मुख्य सड़कों पर बेतरतीब तरीके से पड़े कचरे को दिखाया गया है। फ़िल्म के एक अन्य सीन में कैमरा जिला उपायुक्त के कार्यालय के सामने भी जाता है जहां भी कचरे बिखरे हुए दिखाई देते हैं।
फ़िल्म में कई लोगो के संवाद भी है। फ़िल्म में एक भाग में एक व्यवसायी को यह कहता दिखाई देता है कि कैसे उसके दुकान के सामने फैले कचरे से निकलने वाली लगातार दुर्गन्ध उसको अब पसंद आने लगी है और लोग अब उसकी दुकान को “कचरे के सामने वाली दुकान” के नाम से पुकारने लगे है।
फ़िल्म के एक अन्य अंश में एक स्कूली छात्रा कहती है कि उसको इस शहर का नागरिक होने पर गर्व है क्योंकि यहां के लोग अपने घर साफ सुथरा रखते हैं और बेहिचक अपने घर का कूड़ा सड़क पर फेंकते है।
यु ट्यूब के सेंसेशन बन चुके राजकुमार ठाकुरिया ने भी यहां के कूड़े कर्कट को देखकर कहतें है कि ये शहर उनको खूब प्रिय है। निर्देशक ने पूरी फिल्म में हर कड़ी को बड़ी खूबसूरती एक दूसरे से पिरोते हुए नेपथ्य से अंग्रेजी में कम्मेंटरी भी दी जो दर्शकों को बांधे रखती है।
हर बात को सीधे सपाट शब्दो मे कहा गया है जबकि इस फ़िल्म में गाय है लेकिन उस पर डिबेट नही है,लोगो की बोली है लेकिन हुडरंग मचाते लोगो की टोली नही है,गदंगी के साथ जी लेने का धर्म है लेकिन कही भी फतवा नही है।शहर की सड़कों का जिस तरीके फिल्मांकन किया गया है वो काबिले तारीफ है।
इस लघु फ़िल्म को बनाने में लगभग 18 महीनों के समय लगा।श्री दत्त ने बताया कि शहर की गंदगी को देखकर वो काफी हैरान व परेशान थे। उन्होंने कई बार कई अधिकारियों से निवेदन भी किया कि शहर वासियों को इस कचरे से निजात दिला दे लेकिन कोई ठोस नतीजा न निकलता देख उन्होंने एक अलग तरीके से आवाज उठाने का प्रयास किया।
उन्होंने बताया कि यह फ़िल्म वास्तव में एक मॉकुमेंट्री है जिसमे किसी भी समस्या को खुद पर व्यंग कस कर दिखाया जाता है और ऐसा करने की प्रेरणा उनको साहित्य रथी लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ के लिखे साहित्य से मिली है।
उन्होंने यह भी कहा कि यही इस शहर को कूद कचरे से छुटकारा नही मिला तो वो दिन दूर नही जब इस शहर को लोग महाबाहु ब्रह्मपुत्र और चाय बागान से नही बल्कि कचरे से पहचाने लगेंगे।सत्यकाम दत्त एवम उनके सभी सहयोगियों को फ़िल्म बनाने का कोई अनुभव नही था ये उनका पहला प्रयास था।
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